राजा की रानी
दूसरे दिन ठीक समय पर काशी आ पहुँचा और प्यारी के मकान में ही ठहरा। ऊपर के दो कमरों को छोड़कर करीब सारा का सारा मकान जुदा-जुदा उम्र की विधवा स्त्रियों से भरा हुआ था।
प्यारी बोली, “ये सब मेरी किराएदार हैं।” इतना कहकर वह मुँह फिराकर कुछ हँस दी।
मैंने कहा, “हँसी क्यों? शायद किराया अदा नहीं होता?”
प्यारी बोली, “नहीं, बल्कि कुछ न कुछ और देना पड़ता है।”
“इसके मानी?”
प्यारी इस दफे हँस पड़ी और बोली, “इसके मानी है, भविष्य की आशा पर मुझको ही इन्हें खाना-कपड़ा देकर जिलाए रखना है। जीती रहेंगी तभी तो बाद में देंगी, यह भी क्या नहीं समझ सकते?”
मैंने भी हँसकर कहा, “समझता नहीं तो! इस तरह भविष्य की आशा पर कितने लोगों को तुम्हें गुपचुप अन्न-वस्त्र जुटाना-पटाना पड़ता होगा- मैं केवल वही सोच रहा हूँ!”
इनके सिवाय मेरी दो-एक रिश्तेदार भी हैं।”
“सो भी है क्या? किन्तु, मालूम कैसे हुआ तुम्हें कि रिश्तेदार हैं?”
प्यारी जरा सूखी हँसी हँसकर बोली, “माँ के साथ आने पर इस काशी में ही तो मेरी 'मौत' हुई थी, शायद तुम्हें यह याद नहीं रहा। तब असमय में ही जिन्होंने मेरी 'सद्गति' की थी, उन लोगों का वह उपकार क्या प्राण रहते कभी भूला जा सकता है?”
मैं चुप हो रहा। प्यारी कहने लगी- “इन लोगों का वह शरीर बड़ा ही दयापूर्ण है। इसीलिए, पास रखकर इन पर जरा कड़ी नजर रखती हूँ, जिससे इन्हें और अधिक उपकार करने का सुयोग न मिले।”
उसके चेहरे की ओर निहारते ही एकाएक मेरे मुँह से बाहर निकल गया, “तुम्हारे हृदय के भीतर क्या है-बीच-बीच में उसे ही चीरकर देखने की इच्छा होती है राजलक्ष्मी!”
“मरने पर देखना। अच्छा, कमरे में जाकर सो जाओ। रसोई बन जाने पर उठा दूँगी।” इतना कहकर और हाथ के इशारे से कमरा दिखाकर वह जीने से नीचे उतर गयी।
मैं वहीं पर कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। यह नहीं कि आज मैंने उसके हृदय का कोई नया परिचय प्राप्त किया हो, किन्तु, मेरे खुद के हृदय में यह सामान्य कहानी एक नये चक्कर की सृष्टि कर गयी।
रात को प्यारी बोली, “तुम्हें फिजूल कष्ट देकर इतनी दूर ले आई। गुरुदेव तीर्थाटन करने निकल गये हैं, उनसे नहीं मिला सकी।”
मैंने कहा, “इसके लिए मैं जरा भी दु:खित नहीं हूँ। अब तो कलकत्ते लौट चलना होगा न?”
प्यारी ने गर्दन हिलाकर बताया, “हाँ।”
मैंने कहा, “क्या मेरा साथ चलना आवश्यक है? न हो तो मैं जरा और पश्चिम की ओर घूम आना चाहता हूँ।”
प्यारी ने कहा, “बंकू के ब्याह में तो अब भी कुछ देर है। चलो न, मैं भी प्रयाग चलकर स्नान कर आऊँ।”
मैं जरा मुश्किल में पड़ गया। मेरे दूर के रिश्ते के एक चचा वहाँ नौकरी करते हैं। सोचा था कि वहीं जाकर ठहरूँगा। सिवाय इसके और भी कई परिचित मित्र दोस्त वहाँ रहते हैं।
प्यारी ने निमेष-मात्र में मेरे मन का भाव ताड़कर कहा, “मैं साथ रहूँगी तो शायद कोई देख लेगा, यही न?'
अप्रतिभ होकर कहा, “वास्तव में कलंक चीज ही ऐसी है कि लोग झूठे कलंक का भी भय किये बगैर नहीं रह सकते।”
प्यारी ने जबर्दस्ती हँसते हुए कहा, “सो ठीक है। गत साल आरे में तो तुम्हें एक तरह से गोद में लिये ही लिये मेरे दिन-रात कटे हैं। सौभाग्य से उस दशा में किसी ने तुम्हें नहीं देखा। उस जगह शायद तुम्हारी जान-पहिचान का कोई बन्धु-बान्धव नहीं था।”
मैंने अतिशय लज्जित होकर कहा, “मुझे ताना मारना वृथा है। मनुष्यता के लिहाज से मैं तुम्हारी अपेक्षा बहुत हीन हूँ, इस बात को मैं अस्वीकार करता नहीं।”
प्यारी तीक्ष्ण स्वर से बोल उठी, “ताना! तुम्हें ताना मार सकूँगी, यही सोचकर शायद मैं वहाँ गयी थी, क्यों? देखो, मनुष्य के पीड़ा पहुँचाने की भी एक हद होती है- उसे मत लाँघ जाना।”
कुछ देर चुप रहकर फिर बोली, “ठीक, कलंक ही तो है! यदि मैं होती तो इस कलंक को सिर पर लेकर लोगों को बुलाकर दिखाती फिरती, पर ऐसी बात मुँह से बाहर न निकाल सकती।”
मैंने कहा, “तुमने मुझे प्राण-दान जरूर दिया है-किन्तु, मैं अत्यन्त छोटा आदमी हूँ राज्यलक्ष्मी, तुम्हारे साथ तुलना ही नहीं हो सकती।” राजलक्ष्मी दर्पयुक्त स्वर में बोली, “प्राण-दान यदि दिया है तो अपनी ही गरज से दिया है, तुम्हारी गरज से नहीं। उसके लिए तुम्हें रत्ती-भर भी अहसान मानने की जरूरत नहीं। किन्तु मैं तुम्हें छोटा-छोटी तबीयत का आदमी नहीं खयाल कर सकती। ऐसा होता तो आफत कटती, गले में फाँसी लगाकर सारी ज्वाला को जुड़ा सकती।” इतना कहकर वह मेरे जवाब की राह देखे बगैर ही कमरे से बाहर चली गयी।
दूसरे दिन सुबह राजलक्ष्मी चाय देकर चुपचाप चली जा रही थी कि मैंने बुलाकर कहा, “बात-चीत बन्द है क्या?”
वह पलटकर खड़ी हो गयी, बोली, “नहीं तो, कुछ कहोगे?”
मैंने कहा, “चलो, एक दफे प्रयाग घूम आवें?”
“ठीक तो है, जाइए।”
“तुम भी चलो।”
“अनुग्रह करते हो क्या?”
“नहीं चाहतीं?”
“नहीं। जरूरत होगी तब माँग लूँगी, इस समय नहीं।” इतना कहकर वह अपने काम से चली गयी।
मेरे मुँह से केवल एक लम्बी साँस बाहर निकल गयी, किन्तु कोई बात नहीं निकली।
दोपहर को भोजन के समय मैंने हँसकर कहा, “अच्छा लक्ष्मी, मुझसे बोलना बन्द करके क्या तुमसे रहा जायेगा जो इस असाध्यह-साधन की कोशिश कर रही हो?”
राजलक्ष्मी ने शान्त-गम्भीर मुद्रा से कहा- “सामने होने पर किसी से नहीं रहा जाता- मुझसे भी नहीं रहा जायेगा। इसके सिवाय, यह मेरी इच्छा भी नहीं है।”
“तब फिर इच्छा क्या है?”
राजलक्ष्मी बोली, “मैं कल से ही सोच रही हूँ कि इस खींच-तान को बन्द किये वगैर नहीं चल सकता। तुमने भी एक तरह से साफ-साफ जता दिया है और मैं भी एक तरह से खूब जान गयी हूँ। गलती मेरी ही हुई, यह मैं स्वीकार करती हूँ, किन्तु...”
उसे सहसा रुकते देख मैंने पूछा, “किन्तु, क्या?”
राजलक्ष्मी बोली, “किन्तु, कुछ भी नहीं। यह जो एक निर्लज्ज वाचाल की तरह याचना करती तुम्हारे पीछे-पीछे घूमती फिरती हूँ,” इतना कहकर उसने एकाएक अपना मुँह मानो घृणा से सिकोड़ लिया और कहा, “लड़का ही क्या सोचता होगा, नौकर-चाकर ही मन ही मन क्या कहते होंगे! राम, राम, मानो मैंने इसे एक हँसी का व्यापार बना डाला है।”
कुछ देर ठहर कर फिर कहने लगी, “बुढ़ापे में यह क्या मुझे सोहता है? तुम इलाहाबाद जाना चाहते थे, जाओ। फिर भी यदि हो सके तो बर्मा रवाना होने के पहिले एक दफे भेंट कर जाना।” इतना कहकर वह चली गयी।
साथ ही साथ मेरी भूख भी गायब हो गयी। उसका मुँह देखकर आज मुझे पहले ही पहल ज्ञात हुआ कि यह सब मान-मनौवल का मामला नहीं है, सचमुच ही उसने कुछ न कुछ सोचकर स्थिर कर लिया है।